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आलिया की कहानी: एक कोना, एक उम्मीद

Author(s):
Uma, Samanta Foundation

जब मैैंने आलिया की कहानी लिखनी शुरू की, तो मुझे लग नहीीं रहा था कि ये मेरे लिए इतना personal हो जाएगा।

वो कोना जहाँ वो जाकर चुपचाप बैठ जाती थी — कई बार वो मेरे लिए भी जाना-पहचाना सा लगा। बचपन मेें मैैंने भी वो नज़रेें महसूस की हैैं, वो छोटे-छोटे ताने जो धीरे-धीरे अंदर घर कर लेते हैैं। बस, फर््क इतना था कि मेरे पास एक-दो लोग थे जो साथ खड़़े हो गए थे।

पर आलिया के पास कोई नहीीं था।

ये कहानी सिर्फ़ उसकी नहीीं है। ये उन सब बच्चचों की है जो हर रोज़ खुद को साबित करने से पहले, ज़रा साफ़ दिखने की परीक्षा मेें ही बाहर कर दिए जाते हैैं।

मैैंने इस कहानी को उसी सादगी और सच्चाई से लिखा है जैसे आलिया जीती है — कम बोलकर, सब सहकर, और फिर भी हर सुबह अपनी बहन का हाथ थामकर निकल पड़ने की उम्मीद के साथ।

अगर कभी आप किसी बच्चे को चुपचाप कोने मेें बैठा देखेें, तो शायद आप उसे सिर्फ़ नाम से नहीीं, उसकी कहानी से याद रखेेंगे।

सुबह का उजाला अभी ठीक से फैला भी नहीीं था कि आलिया अपनी छोटी बहन का हाथ थामे आंगनवाड़़ी की ओर चल पड़़ी। उसकी माँ ने उसे समझाया था कि सीखना ज़रूरी है, लेकिन कु छ दिनोों से उसके कदम भारी हो गए थे। हर रोज़, आंगनवाड़़ी की दहलीज लांघने से पहले उसका मन आशंका और डर से भर जाता था। वहाँ जाने का मतलब था कई जोड़़ी आँखोों का उसे घूरना, फु सफु साहटेें, और वो ताने जो अब तक उसकी आदत बन चुके थे।

दरवाजे पर पहुुँचते ही वही हुआ जिसकी उसे उम्मीद थी। आंगनवाड़़ी कार््यकर््तता ने उसे सिर से पैर तक देखा और नाक सिकोड़कर कहा, “फिर से गंदे कपड़़े पहन कर आई हो? मैैंने कहा था ना, कल से ऐसे आई तो घर भेज दूँगी!”

पीछे खड़़े बच्चे फु सफु साने लगे।
“इसे देखो! कितनी गंदी है!”
“मैैं इसके पास भी नहीीं बैठूंगा।”
“हम इसके साथ नहीीं खेलेेंगे।”

आलिया की छोटी बहन ने उसका दुपट्टा और कसकर पकड़ लिया। उसे भी यह महसूस हो रहा था कि यह जगह उनके लिए नहीीं थी। लेकिन आलिया चुप रही। उसने अपनी आँखेें झु का लीीं और एक कोने मेें जाकर बैठ गई।

वो पहली बार जब माँ का हाथ छोड़कर अकेले अपनी बहन को गोद मेें लेकर आंगनवाड़़ी आई थी, तो उसके चेहरे पर न तो मुस्कान थी, न ही डर — बस उम्मीद थी। उस दिन उसके पैर नंगे थे, लेकिन उसके चेहरे पर यह विश्वास था कि यहाँ उसे कु छ नया मिलेगा।

भेदभाव के साए मेें बचपन

आंगनवाड़़ी सिर््फ सीखने की जगह नहीीं थी। यह वो जगह थी जहाँ बाकी बच्चे हँसते, खेलते, कहानियाँ सुनते थे। लेकिन आलिया के लिए यह जगह अलग थी—यहाँ हर रोज़ उसे यह अहसास करवाया जाता कि वह बाकियोों जैसी नहीीं है।

अगले दिन, वह फिर से अपनी छोटी बहन को लेकर आई। इस बार उसके
कपड़़े साफ़ थे, लेकिन फटे हुए थे। उसे लगा शायद इस बार कोई कु छ नहीीं कहेगा। लेकिन अंदर घुसते ही वही आवाज़ आई—

“आज फिर गंदी बनकर आई हो! साथ
मेें अपनी बहन को भी ले आई?” कु छ बच्चचों ने हँसकर उसका मज़़ाक उड़़ाया।

हम इसे अपने साथ नहीीं खिलाएँगे!”
“इतनी गंदी है, हमारे पास बैठ भी नहीीं सकती!”
आंगनवाड़़ी कार््यकर््तता ने गुस्से से उसकी तरफ देखा।
“घर मेें अच्छे कपड़़े नहीीं हैैं क्या? इसे भी यहाँ मत लाया करो!”

आलिया की आँखोों मेें आँसू थे, लेकिन उसने उन्हहेंगिरने नहीीं दिया। उसने अपनी बहन को गोद मेें उठाया और चुपचाप बाहर निकल गई।

आलिया बहुत ही निम्न परिवार से आती है। परिवार मेें उसके माता-पिता मजदूरी कर अपने घर को चलाते हैैं। पूरा दिन उनका आजीविका अर््जजि त करने मेें ही निकल जाता है।

पर आलिया अब धीरे-धीरे बड़़ी हो रही है और उसे बातेें समझ आने लगी हैैं। आलिया रोज की तरह आंगनवाड़़ी आती है, लेकिन पहले वाली मैडम रिटायर हो चुकी हैैं और वह, जो आलिया को उसके कपड़ों के लिए सिर्फ़ नहाने की सलाह देती थीीं, अब नहीीं हैैं। नई मैडम के आने से आलिया की दिनचर््यया मेें एक अजीब-सी अनदेखी और डर शामिल हो गया है। एक दिन आलिया वही अपने रोज़ के कपड़़े पहनकर आंगनवाड़़ी आती है। वह साथ मेें अपनी 12 माह की बहन को भी अपने साथ ले आती है। उसकी बहन को वह सिर्फ़ ऊपर की एक बनियान मेें आंगनवाड़़ी मेें लाती है। उसे पजामी नहीीं पहनकर लाती है। तो मैडम उसे घर जाकर पजामी पहनाकर लाने को कहती हैैं। आलिया चुपचाप अपना बैग छोड़कर अपनी बहन को लेकर वापस चली जाती है। उस दिन उसकी छुट्टी हो जाती है। पर वह नहीीं आती। आख़़िरी क़दम या एक नई शुरुआत?

उस दिन के बाद, आलिया आंगनवाड़़ी नहीीं गई। उसकी किताबेें एक कोने मेें पड़़ी रहीीं। आंगनवाड़़ी कार््यकर््तता ने राहत की सांस ली और बाकी बच्चचों से कहा,

“अच्छा हुआ, वो अब नहीीं आ रही। कितनी गंदी लगती थी!” कु छ दिनोों बाद, उसकी माँ ने पूछा, “तू आंगनवाड़़ी क्ययों नहीीं जा रही?”
आलिया ने कोई जवाब नहीीं दिया। वह सिर्फ़ अपनी बहन को देख रही थी, जो अब भी रोज़ सुबह उसके साथ बाहर जाने के लिए तैयार हो जाती थी।

यह सब बच्चे अपने घरोों मेें और आंगनवाड़़ी के अंदर भेदभाव होते हुए देखते हैैं, तो उनकी भी वही मानसिकता बन जाती है। परंतु किसी ने यह नहीीं सोचा कि उस
छोटी बच्ची की क्या गलती है? क्या वह खुद तय करती है कि उसे कौन से कपड़़े पहनने हैैं? या उसे नहलाया जाए या नहीीं?

किसी ने यह नहीीं समझा कि वो कपड़़े जो उसके ऊपर गंदे लगते हैैं, वो उसी ने सुबह अपनी छोटी बहन को सुलाकर, खुद से पहने हैैं — क्ययोंकि उसकी माँ सुबह से काम पर जा चुकी थी और घर मेें कोई बड़़ा नहीीं था।

तो हम आलिया को समझने की थोड़़ी सी कोशिश करते हैैं।

जैसा कि हम जानते हैैं, आलिया ग्रामीण क्त्र से आने वा षे ली एक छोटी सी लड़की है। उसके माता-पिता की आर््थथिक स्थिति अच्छी नहीीं है। उसके माता-पिता मजदूरी करते हैैं। वह सुबह अपने कार््य पर चले जाते हैैं और शाम को घर लौटते हैैं। आलिया दिन मेें घर पर अपनी 12 माह की बहन के साथ अकेली रहती है। उसका बड़़ा भाई भी काम करता है। उसकी माँ को समय नहीीं मिलता कि वह आलिया को तैयार करे। आलिया खुद ही कपड़़े पहनकर आ जाती है — जो भी उसे मिलते हैैं, वही पहनकर वह आंगनवाड़़ी आ जाती है, चाहे वो कपड़़े साफ होों या नहीीं।

ऐसी स्थिति मेें ज़़िम्मेदारी एक 4 साल की बच्ची पर डालना कहाँ का न्याय है? मैडम को चाहिए था कि वो आलिया से कु छ कहने की बजाय उसकी माँ से बात करतीीं। क्ययोंकि आलिया एक छोटी बच्ची है, जिसका मन बहुत ही कोमल है। यदि कोई बात उसे बुरी लग जाए या उसका अर््थ समझ आ जाए, तो वह बात उसके दिल
मेें हमेशा के लिए बैठ सकती है।

इसका समाधान यह हो सकता है कि मैडम खुद आलिया के घर जाएँ और उसकी माता-पिता से उसकी स्वच्छता और कपड़ों को लेकर बात करेें। ताकि आगे चलकर आलिया को किसी भी बच्चे या सामाजिक व्यक्ति से भेदभाव न सहना पड़़े। और वह भी अन्य बच्चचों की तरह समान और सम्मानजनक व्यवहार पा सके ।

क्ययोंकि जब एक बच्चा रोज़ यह सुनता है कि “तू गंदी है, तेरे पास अच्छे कपड़़े नहीीं हैैं,” तो वो धीरे-धीरे मानने लगता है कि शायद वो वाकई वैसा ही है।

ऐसे कई बच्चेहैैं जिन्ह क हें िसी न किसी कारण भेदभाव का सामना करना पड़ता है — चाहे वह कपड़़े को लेकर हो, भाषा को लेकर हो या उनकी पारिवारिक स्थिति को लेकर। इसी कारण से छोटे बच्चचों के साथ कार््य करना और साथ ही उनके माता-पिता के साथ संवाद बनाना बेहद आवश्यक है। बच्चे अपने माता- पिता से ही सीखते हैैं — कपड़़े पहनना, साफ-सफाई, बोलना, सहना — सब कु छ। और यदि हम चाहते हैैं कि बच्चे समानता और आत्मसम्मान के साथ बड़़ेहोों, तो हमेें पहले खुद उनके लिए वह माहौल बनाना होगा जहाँ हर बच्चा, चाहे किसी भीपरिस्थिति से आया हो, अपने आप को एक कोने मेें नहीीं, बीच मेें बैठे किसी कहानी का हिस्सा समझे। क्या बदलाव मुमकिन है?

आलिया की कहानी सिर्फ़ एक लड़की की नहीीं है। यह उन हजारोों बच्चचों की कहानी है जो सिर्फ़ अपने हालात की वजह से भेदभाव झेलते हैैं। जो सिर्फ़
इसलिए किनारे कर दिए जाते हैैं क्ययोंकि उनके कपड़़े साफ़ नहीीं होते, क्ययोंकि वे गरीब हैैं, क्ययोंकि समाज ने उनके लिए पहले से एक जगह तय कर दी है—कोने मेें
बैठने की जगह। लेकिन शायद यह कहानी यहीीं ख़त्म नहीीं होती। शायद किसी दिन, कोई ऐसा होगा जो आलिया को उस कोने से बुलाएगा। शायद कोई उसे यह बताएगा कि पढ़़ाई सिर्फ़ उन बच्चचों के लिए नहीीं है जो अच्छे कपड़़े पहनते हैैं। शायद एक दिन, आंगनवाड़़ी मेें कोई बच्चा कहेगा,

“आलिया, आओ, हमारे साथ बैठो!”

और वही दिन, इस कहानी का नया मोड़ होगा।

About the Author 

Uma, a fellow at Samanta Foundation, is based in Gazivali, Shyampur, Haridwar, Uttarakhand. With a Master’s degree in Sociology, she works in the “Seed Nanhe Kadam” program to prepare young children for school and raise awareness among parents about the importance of education. Uma is deeply committed to fostering equal opportunities and breaking barriers to create a more inclusive and just society.

About the Storytelling Fellowship

This fellowship was created to give people working at the heart of social change a rare space to pause, reflect, and write—not reports or case studies, but real stories. Ten fellows came together to explore what it means to witness, to listen, and to share experiences that are often left unseen. With time, mentorship, and care, they shaped narratives that move beyond data or impact statements—stories that evoke, that remind us what it truly means to care, to act, and to stay present

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